हिमाचल प्रदेश के इतिहास का यह सबसे बड़ा दुखद सत्य है की कोई भी एक बड़ा राज्य लम्बे समय तक क्षेत्र में स्थापित नहीं हो सका| जो बड़े राज्य बने थे उनका भी समय के साथ विघटन हो गया | इसका कारण आपस में युद्ध, एकता की कमी, और दूरदर्शिता का आभाव था|
काँगड़ा राज्य कटोच राजकुमारों ने जसवां, गुलेर, डाडासीबा और दातारपुर नामक छोटे राज्यों में बाँट दिया |
जसवां रियासत 1170 ई. में राजकुमार पूर्णचंद ने स्थापित की| गुलेर राज्य की स्थापना काँगड़ा के ही एक राजा हरिचंद ने 1450 ई. में की थी | ऐसा माना जाता है की एक दिन राजा हरिचंद शिकार खेलते खेलते कुवे में गिर गए | उन्हें मृत मान कर उनकी रानिया सती हो गयी | 22 दिनों के बाद एक व्यपारी ने हरिचंद की आवाज़ सुनी और कुए से बहार निकाला | तब तक काँगड़ा की गद्दी पर उनका भाई करमचंद बैठ गया था | राजा हरिचंद ने ऐसी स्थिति में काँगड़ा जाना उचित नहीं समझा| उन्होंने हरिपुर को राजधानी बना कर गुलेर रियासत की नीव रखी |
इसी गुलेर राज्य के रूप में 1405 ई. में डाडासीबा की नीब सीवनचंद ने रखी | 1550 ई. के लगभग दातारपुर राज्य की स्थापना की गयी | ऐसे ही मंडी और सुकेत, खनेटी कोटखाई, कुमारसेन का विघटन हुआ |
कहलूर के राजा काहनचंद के बड़े पुत्र अजयचन्द ने 1100 ई. के लगभग हन्दुर(नालागढ़) रियासत की नीव रखी |
हिमाचल की कुछ रियासतों का विघटन मध्य काल में ही आरम्भ हो गया था | दिल्ली सुल्तानों के समय में पहाड़ी क्षेत्रो पर उनके आक्रमण होते रहे , ये आक्रमण थोड़े समय के लिए होते थे | लूट पाट मचा कर उनकी सेना वापिस भाग जाती थी |
सन 1540 ई. में शेरशाह सूरी ने अपने सेनापति ख्वास खां को नगरकोट और अन्य पहाड़ी राज्यों पर अधिकार करने के लिए भेजा | उसने कांडा पर विजय पर विजय पाकर उसे हामिद खां के अधीन कर दिया |
शेरशाह सूरी के बाद उनके भतीजे सिकंदरशाह सूरी को मुगलो ने पराजित किया | मुगलो का पहाड़ी राज्यों पर अधिपत्य औरंगजेब के राज्य काल तक बना रहा |
मुगलो का मुख्य उदेश्य पहाड़ी राजाओ से सैनिक सहायता और कर प्राप्त करना था | उनके आंतरिक शासन में वे दखल नहीं देते थे |
सीखों के दसवे गुरु गोविन्द सिंह ने इन राजाओ को मुगलों के विरुद्ध एकत्रित करने का प्रयास किया| उनमे परस्पर विरोध होते हुए भी गुरु गोविन्द सिंह ने पहाड़ी राजाओं की सहायता से नादौन के समीप, मुग़ल सेना को परास्त किया |
1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया | सभी पहाड़ी शासक धीरे धीरे स्वतंत्र हो गए | परन्तु प्रायः सभी पहाड़ी शासक आपस में लड़ते रहे |
नूरपुर के राजा जगत सिंह ने चम्बा के राजा जनार्दन की हत्या कर दी | कहलूर, रामपुर- बुशहर और सिरमौर ने अन्य सभी छोटी रियासतों का अपना अलग राज्य बना लिया | काफी समय तक बाथल, बाघट, क्यूटल, बेजा, भज्जी, महलोग, घामी, कुठाड़, कोटखाई, कोटगढ़, कुनिहार, बलसन आदि कादर रियासतें रही |
19वीं शताब्दी के आरम्भ में गोरखों ने अपने सुयोग्य और महत्वकांक्षी सेनापति अमरसिंह थापा के नेतृत्व में काँगड़ा पर आक्रमण कर दिया |
1805 ई. में हमीरपुर के समीप महालमोरिया के स्थान पर गोरखा सेना और राजा संसारचंद की सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ | इसमें राजा संसारचंद की पराजय हुई | अंत में राजा विवश हो कर वह काँगड़ा के दुर्ग में चला गया | गोरखों ने लम्बे समय तक काँगड़ा के दुर्ग पर घेरा ड़ाल कर रखा |
अंत में राजा संसारचंद ने विवश होकर महाराजा रणजीत सिंह से सहायता मांगी| इस पर रणजीत सिंह ने संसार चंद के सामने एक शर्त रखी की वो इसके बदले नागतकोट और 66 गांव देगा |
१९०९ में महाराजा रणजीत सिंह ने गोरखों को पराजित कर काँगड़ा पर अधिकार कर लिया | उन्होंने अपना राज्य सतलुज और सिंधु नदी के बीच स्थापित किया|
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजो ने अपना प्रभाव इस क्षेत्र पर बढ़ाया | 1847 में लाहौल स्पीति को सिखों से जीतकर उसे काँगड़ा का भाग बनाया| अपनी कूटनीति और दूरदर्शी नीति से हिमाचल के बहुत बड़े भाग में उन्होंने अपना प्रभाव बढ़ाया |
अनेक पहाड़ी राजाओं को जेल में डालकर या पैंशन देकर उनका क्षेत्र अपने साम्राज्य में मिला लिया | अंग्रेजों ने कोटखाई -कोटगढ़ को भी ब्रिटिश भारत का भाग बना लिया |
काँगड़ा की सभी छोटी रियासतों में भी ऐसा ही किया गया | शेष रियासतों के निरिक्षण और देखभाल के लिए शिमला और लाहौर में अपने राजनीतिक प्रतिनिधि नियुक्त किये |
1848 में सभी असंतुष्ट पहाड़ी राजाओं ने अपने खोये हुए राज्य वापिस लेने के उदेश्य से सिखों के साथ मिलकर अंग्रेजों की सत्ता को समाप्त करने का पूरा प्रयास किया | नूरपुर से रोपड़ तक सारा क्षेत्र अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठा परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली |