हिमाचल का इतिहास

अभी तक के देश के इतिहास में हिमाचल का प्रमुख स्थान रहा है| शिवालिक तथा हिमालय की पहाड़ियों में पाषाण युग के बहुत से अवशेष मिले है | शिमला की पहाड़ियों में स्थित नालागढ़ में श्री ओलाफ प्रूफर ने १९५१ में सतलुज नदी सिरजा के दायी और के भाग में हिमालयोत्तर स्थानों का पता लगाया है | नालागढ़ में बहुत से औजार प्राप्त हुए है | इन् औजारों को नदी के गोल पत्थरो से बनाया गया है |

डॉ. जी .सी . महापात्रा ने ही सिरसा नदी घाटी (काँगड़ा) में उत्तर पाषाण काल के कोई ५०० से अधिक अवशेष ढूंढे है | इन् अवशेषों में अधिकांश उत्तर कालीन कुठार, चकमक की कतरनों के उपकरण आदि मिले है |

भारतीय भू- वैज्ञानिक विभाग के पी. सी. खन्ना हुए दक्षिण कॉलेज के प्रो. रा. वी. जोशी, डॉ. एन एस. राजगुरु आदि ने सिरमौर जिले में मारकंडा नदी घाटी में सुकेती क्षेत्र में आदि मानव के पत्थरो और उपकरणों की खोज की है |
रोपड़ में ताम्रयुग से भी पुराने अर्थात नवपाषाण युग की सभ्यता के प्रमाण मिले है | अनेक चट्टानों के स्तरसे ऐसा प्रतीत होता है कि कुल छह सांस्कृतिक काल हुए | इनमे से पहले दो उपाध इतिहासिक काल से हुए| प्रथम काल हड़प्पा तथा उससे संपन्न संस्कृति काल था |

सन १९६४ में शिमला जिला की तहसील रोहड़ू में रोहड़ी नामक नगर के नज़दीक पब्बर नदी के तट पर चिड़गांव के लिए मोटर सड़क बनाते हुए जब एक खेत को आठ नौ फुट निचे काटा गया तो निचे 8x3x3 इंच के आकर की ईंटों से बना हुआ फर्श मिला तथा मिटटी के कईं खिलौने भी मिले थे |
हिमाचल की इन अंधूरिणी पहाडिओं में मिटटी की इन आकृतिओं का मिलना यह सिद्ध करता है कि ऐतेहासिक काल में यहाँ के लोगों का सरस्वती और सिंधु सभयता के लोगों के साथ आदान प्रदान था |

हिमाचल में इन सभ्यता की समकालीन जातियाँ कोल, आदिम, आग्नेय या निवाद वंशी
किन्नर नाग और खश थी|
नवपाषाण काल की मुण्ड भाषी कोल जाति सिंधु तथा सरस्वती नदियों के मैदानी भागो में बसती थी और वही से कुछ दक्षिण की ओर तथा कुछ हिमाचल की दुर्गम घाटीयो में आकर बसे |

एक दूसरी जाति के नाम का भी उल्लेख मिलता है जिसे किरात कहा जाता है ।ये लोग कोल जाति के बाद आये । यह जाति हिमालय के दक्षिण क्षेत्र में हिमाचल होते हुए कश्मीर तक तथा उसके नीचे मोहनजोदडो तक फ़ैल गयी ।
यह जाति पशु पालक थी और इसमें जान व्यवस्था थी । सिंधु सभ्यता कल में ये जातियाँ हिमालय की तराईयों में यहाँ वहाँ बसती थी । यजर्वेद तथा अथर्वेद में इन जातियों का उल्लेख पर्वतीय गुफाओ के निवासियों के रूप में आया है ।
किरातो पहाड़ी तल्हटीओं से भागने वाले आर्य थे । उन को विलीन करने वाले और उत्तर की ओर जाने वाले आर्य नहीं, बल्कि उन्ही के मध्य -एशिया के भाई बंधू खुश थे ।

किरात जाति का वर्णन कई संस्कृति ग्रंथो में मिलता है । महाभारत में किरातों को हिमालय का निवासी बताया गया है । ये लोग फल फूलो का आहार करते थे और मृगछाल पहनते थे ।
किन्नरों और किरातों के सहजातीय बंधु सम्भवतः नाग भी थे । यद्पि किरात जाति के कोई भी अवशेष इस प्रदेश में नहीं मिलते है फिर भी प्रागार्यकालीन नागो से सम्बंधित कई गढ़ यहाँ मिलते है ।
इस जाति के लोग हिमाचल की पहाड़ियों तथा मैदानों में हर जगह बसते थे ।
नाग जाति सबसे पहले मैदानों और मैदानों से लगने वाली हिमाचल की घाटियों में बसती होगी और धीरे धीरे हिमाचल की ऊँची घाटियों में फैली होगी । नागो का उल्लेख महाभारत में भी मिला है ।
उस काल में उन के यमुना घाटी में रहने का वर्णन मिलता है । पुराणों में भी राजाओ का वर्णन मिलता है । निका राज्य मथुरा, विदेशा आदि स्थानों में चौथी और पांचवी शताब्दी तक रहा है । किरतो की भांति हिमाचल में नागो को परास्त करने वाले खश ही थे ।
हिमाचल में सबसे शक्तिशाली जाति खश जाति थी । ताम्र युग के आरम्भ में ये जाति तामीर के पर्वतो में निवास करती थी । सप्त सिंधु में वैदिक आर्यो के छा जाने से पूर्व ही इस जाति के लोग मध्य एशिया से आ कर नेपाल तक फ़ैल गए थे । जब खश यहाँ आये तो उन्हें यह प्रदेश बीहड़ नहीं मिला । उन्हें पहले से ही बसी कोल, किन्नर, किरात, नाग और यक्ष जातियों का सामना करना पड़ा ।

उन्हें हिमाचल में अपना प्रभुत्व स्थापित करते हुए लम्बा समय लगा होगा इस बात का अनुभव उनके द्वारा स्थापित अनेक उपनिवेशों जैसे की महासू मंडल के रोहड़ू क्षेत्र में स्थापित खशघार, खशकंडी आदि नामक गाँवों में लगता है ।

खशो का नाग जाति पर विजय का पता यहाँ पर प्राचीन काल मनाये जा रहे भुण्डा नमक उत्सव से लगता है।
संस्कृत ग्रंथो में भुण्डा को नरमेघ यज्ञ नाम से जाना जाता है ।
जिस तरह भारत में दशेरे को आर्यो की दक्षिण देशीय द्रविड़ व अन्य जातिओं पर विजय की स्मृति में मानते है।उसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में भी भुण्डे को खाशो की नाग जाति पर विजय के रूप में मानते है ।

खाशो का यहाँ की आदि जातिओं पर विजय का संकेत कुल्लू के एक ऐतिहासिक स्थल निरमण्ड में मनाई जाने वाली बूडी दिवाली से भी मिलता है। इस प्रकार की दिवाली मैदानो में मनाये जाने वाली दिवाली से भिन्न है ।

बूढी दिवाली दीपावली के ठीक एक माह बाद मार्गशीर्ष की अमावस्या को मनाते है ।इस में खेले जाने वाले लोकनाट्य में खश -नाग युद्ध दिखाया जाता है ।
खशों की पूजा पद्ति तीन स्तरों की थी- इष्टदेवता, गृहदेवता और ग्रामदेवता की पूजा । यह तीन तरह की पूजा आज भी हिमाचल में अब भी प्रचलित है, जहाँ हर व्यक्तिके अपने इष्ट देवता, कुलदेवता और ग्रामदेवता होते है ॰ खाशो में परिवार, गांव और पंचायत के मुखिया की प्रथा भी थी । ऐसा अनुमान है की उस समय पुरषो की संख्या अधिक होने तथा स्त्रियों की संख्या काम होने के कारण बहुपति प्रथा का जन्म हुआ ।
इस प्रथा के विरुद्ध कोई आपत्ति न उठाई जा सके इस द्रष्टृी से उनके सम्बन्ध में कुछ दंतकथाएं जोड़ दी गयी । संभवतःपांडवों ने भी बहुपति प्रथा खशों से ही ली हो ।
इस प्रकार कहा जा सकता है की हिमाचल प्रदेश का इतिहास असंख्य जातियों उपजातियो के उदय, विलय, संघर्ष,शांति और अनेक वंशो के आविर्भाव, पतन और मिश्रण से ओत-प्रोत है ।

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